एक ओर भूमि अध्यादेश के विरुद्ध देश भर में विरोध प्रदर्शन जोर पकड़ता जा रहा है तो दूसरी ओर खनिज समृद्ध क्षेत्रें में रहने वाले आदिवासी समुदाय इस आशंका में जी रहे हैं कि खान और खनिज (विकास और विनियमन) संशोधन विधेयक, 2015 (एमएमडीआरए) उनके ऊपर क्या प्रभाव डालेगा। इस विधेयक को राष्ट्रपति की मंजूरी मिल गई है और अधिनियम की कुछ धाराओं के लिए सरकार ने नियमों का मसौदा भी तैयार कर लिया है।
1957 का मुख्य अधिनियम आदिवासियों के लिए उतना ही कठोर है जितना कठोर 1894 का अधिनियम किसानों के लिए है। लेकिन आश्चर्यजनक रहा कि राज्यसभा में वाम दलों और कांग्रेस के विरोध के अलावा तृणमूल कांग्रेस, भारतीय जनता दल और यहाँ तक कि समाजवादी पार्टी ने इसको समर्थन देने के मुद्दे पर सरकार से समझौता कर लिया और यह आसानी से पारित हो गया। इस अधिनियम का मुख्य दोष यह है कि यह उन भूमि मालिकों (जो ज्यादातर आदिवासी समुदाय के हैं), जिनकी भूमि के नीचे खनिज भंडार मौजूद हैं, के अधिकारों के महत्त्वपूर्ण विषय को संबोधित नहीं करता। इस अधिनियम में सहमति या उन ग्राम सभाओं से विचार विमर्श तक का प्रावधान नहीं है जो खनन गतिविधियों से प्रभावित होंगे। कानून में आदिवासियों को 'भूमि की सतह के पट्टेदार' के रूप में परिभाषित किया गया है। पट्टेदार के रूप में उन्हें मुआवजे का अधिकार तो है लेकिन जैसा नियमों के माध्यम से प्रतिपादित किया गया है कि अगर वे खनन योजना या मुआवजे की राशि पर सहमति नहीं दिखाते तो फ्राज्य सरकार पट्टेदारों को कथित भूमि पर लाइसेंसधारी को प्रवेश करने देने और आवश्यक खनन गतिविधि संचालित करने देने की मंजूरी देने का आदेश दे सकती है।''(सामान्य प्रावधान के अंतर्गत भाग-5)
यही वह प्रावधान है जिसके अंतर्गत लाखों आदिवासी परिवार विस्थापित हुए हैं, प्रवासियों में बदल गए हैं, और इतना ही नहीं, उन्हीं खानों में दैनिक अनुबंध मजदूर बनने को बाध्य हुए हैं जिसने उनके जल-जंगल-जमीन को तबाह कर दिया। आदिवासी आंदोलनों द्वारा अधिनियम में संशोधनों की मांग की जाती रही है ताकि सुनिश्चित हो कि ऐसे पट्टों के आवंटन से पहले उनकी संसूचित सहमति ली जाए और खनिज संपदा के लाभ में उन्हें भी हिस्सेदारी मिले। सरकारों ने अभी तक इस लोकतांत्रिक मांग पर ध्यान देने से इनकार ही किया है। भारत में खनिजों का सर्वाधिकार राज्यों के पास है, लेकिन गुजरते वर्षों में निजी लाभ के लिए उसने खनिज संसाधनों को अन्य हाथों को समर्पित करने के एक मंच के रूप में ही कार्य किया है। 1957 के बाद से अधिनियम में पर्याप्त संशोधन लाए गए हैं लेकिन वे खनन कंपनियों के अधिकारों को और मजबूत करने की दिशा में ही थे न कि आदिवासियों के अधिकारों को मजबूत करने के लिए। ऐसा वर्ष 1997 के सर्वोच्च न्यायालय के समाथा निर्णय के बावजूद हुआ है जिसके अंतर्गत कोर्ट ने संसूचित सहमति और खनन संपदा में हिस्सेदारी के आदिवासियों के अधिकार की पुष्टि की थी। निर्णय में यह कहा गया कि पाँचवीं अनुसूची (अनुसूचित क्षेत्र और इन क्षेत्रें के अनुसूचित आदिवासियों का प्रशासन व नियंत्रण) और विभिन्न राज्यों के कानूनों के अनुसार, चूँकि आदिवासियों की भूमि का स्थानांतरण या उसका पट्टा गैर-आदिवासियों को नहीं दिया जा सकता, इसलिए आदिवासी बहुल क्षेत्र में खनन गतिविधियों में खुद आदिवासियों को शामिल किया जाना चाहिए। 1997 के बाद से पंचायत उपबंध (अनुसूचित क्षेत्रें पर विस्तार) अधिनियम, 1996_ वन अधिकार अधिनियम, 2006 और वन्यजीव(संरक्षण) संशोधन अधिनियम, 2006 आदि अधिनियमों ने आदिवासियों व ग्रामसभाओं के अधिकारों की स्थापना में सहायता की है। अभी हाल में सुप्रीम कोर्ट के वेदांता निर्णय में न्यायालय ने कंपनी व राज्य सरकार के बीच हुए समझौते को रद्द करार दिया क्योंकि इसमें उस अनुसूचित जनजाति की सहमति नहीं ली गई थी जिनके पारंपरिक अधिकार इस समझौते से प्रभावित होते।
इस बात पर कोई विवाद नहीं है कि देश की खनिज संपदा का खनन होना चाहिए और विकास में उसका उपयोग होना चाहिए। हालाँकि केंद्र की सत्तारूढ़ सरकारों द्वारा इस विकास का अर्थ स्थानीय समुदाय के साथ साझेदारी में खनिज के अधिक सतत व न्यायसंगत उपयोग के बजाय कंपनियों के साथ मिलकर विशेषाधिकार लाभ प्राप्त करना रहा है। इसके साथ ही विकास के नाम पर खनिजों की लापरवाह लूट के बजाय एक विशिष्ट समय अंतराल में आवश्यक खनिज की मात्र का निर्धारण अंतरपीढ़ी निष्पक्षता के आधार पर होना चाहिए।
खनिज संपदा में हिस्सेदारी की आदिवासी मांग को आंशिक मान्यता प्रदान करते हुए संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन सरकार ने वर्ष 2010 में भूमि अधिग्रहण अधिनियम, 1957 में एक संशोधन किया। अधिनियम में कहा गया, फ्कोई व्यक्ति या व्यक्ति-समूह जिसका भूमि पर अधिकार है या उसे भोगाधिकार अथवा पारंपरिक अधिकार प्राप्त है, उसे कंपनी कोटा के माध्यम से 26 प्रतिशत के बराबर मुक्त शेयर आवंटित किया जाएगा या लाभ के (कर चुकाने के बाद) 26 प्रतिशत के बराबर वार्षिकी प्रदान की जाएगी---य्। इसने 'पारस्परिक रूप से सहमत वार्षिक मुआवजे' को अनिवार्य बना दिया। इसने आदिवासी समुदाय के कल्याण की दिशा में अन्य प्रावधान भी किये।
यद्यपि संप्रग सरकार खनन कंपनियों द्वारा इसके विरोध के आगे जल्द ही झुक गई और उसने इस संशोधन को 2011 के खान और खनिज (विकास और विनियमन) संशोधन विधेयक से बदल दिया, जिसे आदिवासी अधिकारों को ध्यान में रखते हुए और अधिक कमज़ोर संस्करण कहा जाएगा।
नरेंद्र मोदी सरकार ने आदिवासी हित के इन कमजोर प्रावधानों को भी समाप्त कर दिया। मोदी सरकार द्वारा इस विधेयक में 22 संशोधन लाये गए, प्रत्येक संशोधन निवेश आकर्षित करने के नाम पर निजी क्षेत्र की खनन कंपनियों के अधिकारों को मजबूत करने के लिए है। उदाहरण के लिए 2011 के विधेयक में प्रमुख खनिजों के लिए भूमि मालिकों व पट्टेधारकों से सभी आवश्यक अनुमति प्राप्त करने और गौण खनिजों के लिए पाँचवीं एवं छठी अनुसूची क्षेत्रें में ग्राम सभा के साथ परामर्श करने की जिम्मेदारी राज्य सरकारों के कंधे पर थी। उस विधेयक में यह भी अनिवार्य बनाया गया था कि भूमि का लीज देने से पहले वन (संरक्षण) अधिनियम, वन्य जीव (संरक्षण) अधिनियम या अन्य प्रयुक्त कानूनों के अंतर्गत सभी पर्यावरण व वन संबंधी अनापत्ति मंजूरी ली जाएगी। इसी प्रकार इसने पाँचवीं और छठी अनुसूची क्षेत्रें में गौण खनिजों के लिए पट्टों के अनुदान के लिए आदिवासी सहकारी समितियों को अधिकार सौंपा था। किन्तु 2015 के विधेयक में न तो आदिवासी सहकारी समितियों की बात की गई है न ही सहमति, परामर्श या मंजूरी के लिए कोई प्रावधान किया गया है। यह फ्शीघ्र मंजूरीय् और फ्कारोबार की आसानीय् के नाम पर ग्राम सभाओं और पर्यावरण मानदंडों को दरकिनार करने का एक प्रयास है।
इसके अतिरिक्त 2011 के विधेयक में एक जिला खनिज फाउंडेशन (डीएमएफ) की स्थापना का प्रस्ताव किया गया था। 2015 के संशोधन में भी इसे शामिल रखा गया है लेकिन इसकी गुंजाइश और इसके लिए आवंटित राशि को काफी कम कर दिया गया है। वार्षिक रॉयल्टी की पूरी राशि के बराबर धनराशि के योगदान के बजाय अब कंपनियों को राज्य सरकारों को एक तिहाई भुगतान ही करना होगा। कोयला कंपनियों के लिए अनिवार्य था कि वे अपने लाभ का 26 प्रतिशत जिला खनिज फाउंडेशन को देंगी, लेकिन मोदी सरकार ने इस प्रावधान को भी समाप्त कर दिया है।
2011 का संशोधन विधेयक पहले ही अपर्याप्त था, लेकिन मोदी सरकार ने उसे जिस प्रकार से आगे बढ़ाया है वह आदिवासी भारत के साथ विश्वासघात है। राज्यसभा में तृणमूल कांग्रेस के नेता डेरेक ओ ब्रायन, जो मोदी सरकार के लिए प्रॉक्सी प्रवक्ता के रूप में बिल का समर्थन करने के लिए खड़े हुए, ने कहा- फ्गिलास को आधा भरा हुआ देखना चाहिए, न कि आधा खाली --। हमें नकारात्मक नहीं सोचना चाहिए। सरकार ने आदिवासियों सहित स्थानीय समुदाय को खनन क्षेत्र के विकास में भागीदार बनाए जाने के सुझाव को मान लिया है।य् ओ ब्रायन को यह समझना चाहिए यह आदिवासियों को खनन क्षेत्र के विकास में भागीदार बनाए जाने का प्रश्न नहीं है बल्कि खनन संपदा में हिस्से पर उनके दावे को कानूनी रूप से अधिकारधारक के रूप चिह्नित करने का सवाल है। खनन पट्टा दिए जाने से पहले आदिवासियों की संसूचित सहमति प्राप्त करना अनिवार्य होना चाहिए। गिलास भरा हुआ कॉर्पोरेट लॉबी के लिए है जबकि आदिवासियों के लिए वह खाली है।
इन संशोधनों से जो सबसे ज्यादा प्रभावित होंगे, उनसे परामर्श नहीं करके मोदी सरकार ने लोकतंत्र का मजाक बना दिया है। जब खनन कंपनियाँ बिना उनकी मर्जी के उनके क्षेत्र में प्रवेश करेंगी तब आदिवासी जल्द ही अपनी मर्जी भी बता देंगे।
आदिवासियों की नई चिंताए